आजादी के साठ साल बाद भी केवल चालीस प्रतिशत भारतीयों के बैंकों में बचत खाते हैं और ६,५०,००० गावों में से सिर्फ ६ प्रतिशत में बैंक शाखाएं हैं| गरीबी हटाओ को लेकर सरकार द्वारा चलाए गए सारे अभियान असफल होने के पीछे प्रमुख कारण वित्तीय समावेशन का अभाव ही है| भारतीय रिजर्व बैंक की लाख कोशिशों के बावजूद आज भी वित्तीय समावेशन बेंकों के लिए महज एक औपचारिकता से बढ़कर कुछ नहीं है| वित्तीय समावेशन को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक की नीतिओं में कई मूलभूत खामियाँ भी रही| इनमें प्रमुख थी प्रारम्भ में वित्तीय समावेशन का सारा बोझ सरकारी बेंकों पर लादना| कोई भी वित्तीय संस्था किसी भी प्रकार का अलाभकारी व्यापार क्यों करेगी? शायद इसीलिए अब निजी क्षेत्र के बेंकों को भी ये जिम्मेदारी अनिवार्य रुप से दी जा रही है जो एक स्वागत् योग्य कदम है|
बेंकों द्वारा वित्तीय समावेशन हेतु चलाए जा रहे सभी प्रयासों में आधुनिक सूचना तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि गाँव गाँव में बैंक ब्रान्च खोलना अलाभकारी एवं अव्यवहारिक है | वर्तमान में इस तकनीक पर आधारित दो मोडेल्स प्रचलित हैं| व्यवसाय प्रतिनिधि (बीसी) मोडेल जिसमें बैंक द्वारा नियुक्त बायोमेट्रिक पोइन्ट ओफ सेल उपकरण से सुसज्जित एजेन्ट गाँव गाँव जाकर लोगों को बैंकिंग सुविधा उपलब्ध कराते हैं | दूसरा है गाँव में सस्ते बायोमेट्रिक ग्रामीण एटीम की सुविधा प्रदान करना |
ReplyDeleteविभिन्न आईसीटी युक्तियों से सुसज्जित देश भर में फेले लगभग साठ हजार बीसी केंद्रों से मार्च २०११ तक लगभग ७ करोड ४३ लाख नो फ्रिल एकाउन्ट्स ( बिना न्यूनतम शेष राशी वाले बैंक बचत खाते) खोले गए| निसन्देह सुदूर ग्रामीण इलाकों में इतनी संख्या में नए लोगों को औपचारिक बैंकिंग से जोडना काबिले तारीफ है| लेकिन इस बहु प्रचिलित बीसी मोडेल में कई निहित खामियाँ हैं| सर्वप्रथम केवल खाता खोलने मात्र से वित्तीय समावेशन का उद्धेश्य पूरा नहीं होता अगर उस खाते में लम्बे समय तक कोई लेनदेन ही न हो| नवीनतम आन्कड़ों के अनुसार उपरोक्त ७ करोड ४३ लाख खातों में से सिर्फ ३ से १५ प्रतिशत ही सक्रिय हैं एवं शेष ८५ फीस्दी खातों में कभी कोई लेनदेन नहीं होता|